Tuesday 18 July 2017

कहानी के सूचीः

॰ गुंडा
॰ पतीत
॰ भवता
॰ जवान जिनगी जिआन जिनगी

॰ चूक

॰ मस्टरनी माटसा
 


 

गुंडा


चार कदम चल के मिंती थोड़े ठमक गेल। पीछू घुम के ऊ भर नजर ढिमका पर बैठल दीना दने देखे लगल; फेर ओकरा अपना दने देखते देख के ऊ आगू बढ़ गेल। ...  दस-बीस कदम चलके ऊ घुर गेल, ऐसे कइले, जइसे ओकर कुछ गिर गेल हे, जेकरा खोजे खातिर ऊ पीछू लौटल हे। गते-गते बढ़ते-बढ़ते ऊ चोर नजर से दीना के भी निहार ले हल। दीना भी मिंती के भाँप के ओकरा भर नजर देखलक, त मिंती के रोमा-रोमा गनगना गेल। आँख नञ् ठहर सकल दीना पर। भाग चलल ऊ सहजे।
उज्जर बग-बग लुंगी-गंजी पहिनले आउ कन्हा पर एगो दू गज के छिटदार विंध्याचल वला पातर गमछी रखले, गोर-सुत्थर सजीला जवान में मिंती के कहैं गुंडा के छँहक नञ् नजर आल। राह चलते मनेमन छगुने लगल ऊ - "ऐसन कइसे हो सकऽ हे! दीना सन भला मानुस – गुंडा"!! ... "नञ्, हमर मन नञ् माने। बकि दीदी झूठ काहे बोलत? जहाँ धुइयाँ उठे हे, हुआँ आग जरूरे रहऽ हे। .... छोड़ऽ हमरा की मतलब हे ... दीदी राह ताक रहल होत। चीनी ले गुडुआ रो रहले होत।"
दोकान से चीनी लेके मिंती हाली-हाली घर पहुँचल त पट दनी पुछ बैठलन - "कौन दोकान से चीनी लावे गेलें हल मिंती? ... बुतरू एहाँ कान-कान के हलकान हो गेल चीनी-चीनी करते।"
"सोमर साव हीं झरल हलइ, दीदी! ... ऊ पट्टी से ला रहलियो हऽ।"
"अच्छ! तनी हमरो सिकरेट ला देवऽ ऊ पट्टी से।" पिठदोबारे घर में घुँसते ओकर जीजा रामपुकार जी मिंती के कनखिऐते बोललन।
जीजा दने ताकलक त मिंती के करेजा धकधक करे लगल। सोंचे लगल ऊ - "हो न हो मेहमान कोय दूरा-दलान पर बैठ के देख रहलन हल"।
बकि मन कड़ा कर के बोलल ऊ, "अपने लावऽ अपन सिकरेट, हम नहाय जा रहलूँ हें।
"कहाँ?" राम पुकार बाबू मोंछ तर मुसकते बोललन।
"देखऽ हीं न गे दीदी।" मिंती बहीन दने देख के नखरा उतारे लगल, फेर मोका देख के दोसर भित्तर दने भाग गेल।
"ए गे! हमरा दिमाग न हे। ... बूढ़ा होल जइतन ... बुढ़भेस लगले रहत।" फेर मरदाना दने देख के मुँह बिचका के, कखनिओं के ओल ले लेलन मिंती के दीदी।
"अच्छ! हम बूढ़ा!! ... चालिसे साल में ... सांझ होवे दऽ ... बताम।"
"ठीक, हम जानऽ ही कि आझ तोरा पर गामा पहलमान असवार हो जात।... आउ सुनऽ! घुरी-घुरी छउँड़ी से लग-लग काहे करते रहऽ हो? ... काँच-कुमार बेटी चूड़ी नियन तुन्नुक होवऽ हे। ... जरिओ ठुनका लगे पर ...।"
"रहे दऽ, रहे दऽ! तोरा हमरा से इरखा हो त हम इनका घर दर आवऽ हिओ। ... साला के गाँव भर के कउन अदमी हमर भाग पर नञ् जरऽ होत। कल्हौं बिनेसर बाबू कह रहलन हल - "की हो रामपुकार भाय, मौज है ने? साला, हम समझऽ हूँ कि केतना मौज हे। ... भित्तर के मार सहदेवे जानऽ हे।" फेर मेहरारू दने देख के बोललन ऊ, " आउ ऊ सब गलती थोड़े कहऽ हथ, जब दु-दु गो इन्नर के पड़ी घर में रखले रहम त हंगामा तो करवे करतन लोग"।
"अच्छ!" ... मुँह चमका के बोललन मिंती के दीदी, " त सदा बरत बाँट दऽ!" ... फेर थोड़े रुक के बोललन, "न भाय, छउँड़ी सुत्थर भी ओतने निकललइ।"
ढिमका पर से उठ के घर दने जाय लगल त दीना के लगल कि ओकर दुनहुँ गोड़ कोय छानले हे। ओकर मन कर रहल हल कि एक घंटा कहैं कोठरी में सुत के सपना के दुनियाँ में भुला जाय। ई दुनियाँ से दूर ... बहुत दूर।
दूरा पर आके ऊ सच्चो कोठरी बंद करके पड़ रहल। थोड़के देर में ऊ सपना के दुनियाँ में हल। पुरान जिनगी ओकरा इयाद आ रहल हल। तब ऊ दिनेश हल। पटना साइंस कॉलेज के जुलोजी औनर्स के एगो होनहार छात्र। मैट्रीके से ऊ गाँव-जेवार ले एगो सपना हल; जेकरा डॉक्टर इया प्रोफेसर के रूप में सामने आना हल।
बकि विधि कहियो लोग के सपना पूरा होवे देलन हें? गरमी के छुट्टी में दीना घर आल। बाग-बगैचा में दोस-मोहिम के साथ टहल-घूम के समय बितावे लगल।
एक दिन झोला-झोली होला पर ऊ अपन बगैचा दने से लौटल आ रहल हल। एक हाँथ में एगो किताब हल आउ दोसर हाँथ में गमछी में बन्हल दस-बीस गो अमौरी। अचोक्के कोय पीछे से आके आँख मुन लेलक। आँख पर के कोमल छुअन आउ पीठ के चुभन से दीना जल्दीए भाँप लेलक कि ई कोय लड़की हे।
"के हें? ... छोड़ ...।" दीना डपट के बोलल।
"पछानऽ!" एगो मेहिन अबाज आल।
"देख कमली! तोरा केतना बेरी बोल चुकलिऔ हे कि हमरा से जादे लग-लग नञ् कर, बाकि तों माने ले तैयार नञ् हें।..."  रोसिया के बोलल दीना। "लास्ट वार्निंग दे रहलिअउ हे ... अगर हमरा से रभसलें त अच्छा नञ् होतउ।" आउ कमली के हाँथ झार के चल पड़ल ऊ।
कमली गाँव के सबसे धनगर आउ शानियल अदमी बिनेसर बाबू के बेटी हल। अंग-अंग झन-झन, पोरे-पोर टेढ़। की मजाल कि गाँव के कोय मानिंदे अदमी के भी ऊ राने। गाँव के कोय लड़की के अप्पन बराबर समझे। ओक्कर नजर में गाँव के सब छउँड़किन ओकरा से हेंठ हल, काहे कि ऊ गाँव के सबसे बड़का के बेटी हल। हरमेसा दीना के पीछे पड़ल रहऽ हल। पड़े भी काहे नञ्! गाँव में कउन नवजवान दीना सन सुत्थर, गठीला आउ होनहार हल।
आझ दीना कमली के साथ जे बेहवार कइलक हल ऊ कमली ल बसदास से बाहर हल। ओकरा अंदर गोस्सा के नागिन फुँफकार छोड़े लगल। ऊ दीना के सबक सिखावे ल ठान लेलक।
एक दिन झोला-झोली के समय अचोक्के गाँव में कोहराम मच गेल। चारो तरफ से लाठी-भाला निकले लगल। दु-चार गो फायर भी होल; बकि अभी कहैं कुछ थाह-पता नञ् चल रहल हल।
घंटा दू घंटा में पुलिस आ गेल। आउ जब कारन पता चलल लोग के त सब अचरज में रह गेलन। गाँव के सबसे धनी अदमी के बहीन के साथ बलात्कार के कोरसिस में गाँव के सबसे मिद्धि रजेसर माटसा के बेटा दीना के पुलिस पकड़ के ले गेल।
लोग-बाग चरचा कर रहलन हल, "मन नञ् गोवाही देहे। दीना ऐसन ...।"
"काहे नञ्! मति-गति के कउन ठेकाना हे। नवजवान हलइ आउ सुनऽ हिऐ कि सरीर-विग्यान पढ़ऽ हलै।"
"हे दीनानाथ! गाँव के रच्छा अब बस तूहीं कर सकऽ हऽ!" दस तरह के लोग, दस तरह के बात।
रजेसर माटसा कतनो पैरवी लगा लेलन बकि बेटा के बचा नञ् सकलन। पिछला रेकड के अधार पर ओकरा साथ जज साहेब रहम कइलन आउ ओकरा सिरिफ छो महिन्ना के कड़ा सजाय मिलल।
जेल से जब लौट के आल त दोसर अदमी हल दीना।  बिनेसर बाबू के पच्छ में गोबाही देवे वला के तो जीना हराम हल। खुद बिनेसर बाबू दीना के देख के रस्ता काट ले हलन।
दीना के फटफटिया सवार दोस-मोहिम जब गाँव में ढुक जा हल त औरत-बानी डर से कर-केबाड़ी लगावे लगऽ हलन।बिनेसर बाबू क्रोट उपाय कइलन बकि गरमजरुआ बला दुनहुँ तलाय के मछली अब दीने मरबावऽ हल।
बिनेसर बाबू तो आजिज आ गेलन हल। कभी उनकर दुनहुँ टरेक्टर के पहिया डोभा में मिले, कभी सुत उठला के पर ऊ देखथ कि उनकर सउँसे घर आउ बंगला के पकिया देबाल गोबर से नीपल हे। साइते दिन ऊ थीर के पानी ले होतन। बकि ऊहो कोय कम थोड़े न हलन। चार-पाँच बेर कोय न कोय अजलेम लगा के दीना के जेहल पेठा चुकलन हल।
ई सब बात के साच्छी गाँव-जबार के अदमी हलन। उनकर नजर में दीना एगो ऐसन भेटनर गुंडा हल, जे गाँव-जबार के कउनो अदमी से नञ् बद्दऽ हल। रजेसर माटसा के संतोष बस ई बात से हल कि अब उनकर बेटा के कोय झुट्ठो सता नञ् सकऽ हल आउ नञ् उनकर बेटा कोय बेकसूर के सतावऽ हे।
बुतरु सब के माय-बाप कतनो पीटे बकि ऊ दीना से पिस्तौल चलवे ल सिक्खे ले, हरदम लबधल रहऽ हे। कोय चुलबुल छउँड़किन भले यदि दीना के रस्ता में एकेल्ले पड़ जा हे त ओकर मुँह सुख जा हे।

साल भर से उप्पर से बिनेसर बाबू बहीन के बियाह करे ल सोंचले हलन बकि दीना के डर से आउ गाँव-जेवार में नमहँस्सी के डर से कोय जग नञ् ठान रहलन हल। आखिरकार, छाती पर पत्थल रख के जग नाध देलन।
रामपुकार बाबू हीं तो कोय लड़की हे नञ्; से से कउलेज बंद होला पर जब से मिंती उनका हीं आल हल, ओकरे गीत-नाध में जाय पड़ऽ हे। आझ ओकर गोड़ नञ् ठहर रहल हे। घुरी-घुरी दुआरी दने ताक रहल हे कि कखने बोलहटा आवे। ओकरा कल के इयाद आवऽ हे। ... कोय हौले से पुकार रहल हल - "विनीता"। केतना मिठास हल।
पीछे घुर के ताकलक त दीना हल।
ओकर सीना लोहार के भाथी सन चले लगल। एन्ने-ओन्ने ताक के देखलक ... कोय देख तो नञ् रहल हे।  ... जीजा जी तो नञ् आ रहलन हें।
फेर उप्पर मन से कहलक, "नञ्, आज नञ्"!
"आझ कुछ नञ् करवो!" दीना ओकर गोड़ बान्हलक। "ए गो ...।"
"नञ् काम हे, ... तूँ बड़ी चलाँक हऽ! ...  दीदी से हमर हाँथ माँगे जा हऽ आउ हमरा से - ए गो- माँगऽ हऽ!"
"अच्छा भाय! दीदी तोरा से कुछ कहऽ हथुन। ... इया, रामपुकार भइया?"
"हाँ, कहऽ हथिन कि बिनेसरे बाबू के पंडाल में तोरो बिआह देवो दीना बउआ के साथ ... आउ कुछ।" मिंती भाव उतार के बोलल।
"हा...य!! उनकर बाल-बच्चन सुखी रहे्।" दीना मिंती के एतना जोर से अकबारलक कि ओकर अंगे-अंग चटके लगल। आजाद होल त ओकर सीना में जल्दी-जल्दी दस-बीस धौल जमा देलक। फेर धीरे से ओकर सीना पर सिर टिका के बोलल, " अब जा हिओ"।
"कहाँ?" दीना पुछलक।
"तोर दोस हीं! ... उनकर बहीन के बियाह के गीत गावे।" आँख नचा के बोलल मिंती।
दीना हँस के रह गेल। कल फेर मिले के वादा लेके ऊ मिंती के आजाद कर देलक। ई चार दिन में खिलल प्रेम के फूल के महक हल।

बिनेसर बाबू के दूरा से लेके सो-पचास बिगहा तक चरखी आउ भुकभुकिया बौल से गज-गज कर रहल हल। कल्हे उनकर बहीन के बराती आवे वला हल। हित-कुटुम, धी-सवासिन से घर भरल हल। कत्ते साल से इलाका में बियाह के एतबड़ तैयारी नञ् होल हल।
गाँव खा-पी के निचीत हल। अचानक तड़-तड़ गोली चले लगल। बम के धुआँ से कुप्पह हो गेल बिनेसर बाबू के बंगला। चरखी-झालर जन्ने-तन्ने रस्ता में बिखर गेल। चीखो-पुकार मच रहल हल। गाँव के अदमी सोंचलक कि जरूर दीना अपन गैंग के साथ बिनेसर बाबू पर चढ़ाय कर देलक हे।
आधा घंटा में गोली-बारी थम गेल। मैक से कोय एलाउन्स कर रहल हल - "भाय लोग! अपने से हमरा कोय दुसमनी नञ् हे। ... हमर काम फतह हो चुकल हे। अपने के कय अदमी हमर कब्जा में हथ, जिनका हम गाँव से बाहर निकलतहीं छोड़ देम। ... रस्ता दे दी हमनी के ...। अगर कोय चलाँकी  देखयतन त अपना साथ ऊ इनकनियों के जान लेतन। ..."
सब गहना-जेबर, रुपिया-पैसा छीन-छोर के डकैत सब निकले चाह रहल हल। बिनेसर बाबू के सब हित-कुटुम के ऊ देवाल दने मुँह करवा के हाँथ उठवैले हल। डकैत बिनेसर बाबू, उनकर दुनहुँ बेटा आउ बिआहता कमली के अगुऐले निकल रहल हल डकैत सब। चारो दने सन्नाटा।
सनसना के अचोक्के एगो गोली आल आउ एगो डकैत के खोपड़ी उड़ैले चल गेल। ... जब तक कोय कुछ समझ पात हल दोसर गोली एगो दोसर डकैत के लुढ़का देलक।
"भाय लोग ई दीना के गाँव हे। ई गाँव के इज्जत दीना के इज्जत हे। तूँ सब रेंज में हऽ। ... अगर जान सलामत चाहऽ हऽ त अपन रस्ता नापऽ। नञ् त ... ।" कहूँ अन्हारा से अबाज आ रहल हल।
देखते-देखते सब कुछ बदल गेल। डकैत अपन घायल साथी के लेके भाग छुटल, सब सर-समान जहाँ के तहाँ फेंक-फाँक के।
पाँच मिनट में सँउसे गाँव जमा हो गेल। सब अवाक्! रजेसर माटसा, जे एगो डंटा लेले, दीना के मारे चललन हल अनेसा में, "दीना-दीना" पुकार रहलन हल।
आउ देवदूत नियन दीना परघट भेल। बिनेसर बाबू के तो काटऽ त खून नञ्! दीना के देख के हाँथ जोड़ देलन ऊ आउ फफक-फफक के रोवे लगलन,"बाबू हो! ... हमरा माफ कर दे। ... हमरा नियन कमीना तोर जिनगी खराब कर देलक ... आउ तूँ हमर जिनगी बचावे खातिर अपन जिनगी दाव पर लगा देलें!"
फेर रजेसर माटसा के गोड़ पर गिर पड़लन ऊ, "कका हमरा माफ कर दऽ ... हम तोरा बड़ी अझुरइली"।
रजेसर माटसा बिनेसर बाबू के उठयलन आउ फट पड़लन, "हमरा एकर फिकिर नञ् हे कि तूँ हमरा अझुरइलऽ, फिकिर तो ई बात के हे कि अब हमर दीना से के सादी-बियाह करत। ... नञ् बने डाक्टर-इंजीनियर। ... हमरा कोय दू-चार गो बेटा हे। ... एकरो पर गुंडा के लेबल लग गेल।"
"के कहऽ है कि दीना "गुंडा" हे। ... हम कराम एकर सादी ... आउ एकर पसंद के लड़की से ... सरीर- विग्यान पढ़े वली से।" अचानक रामपुकार बाबू बीच में बोल पड़लन।
"बाकि केकरा से?" रजेसर माटसा अचरज से पुछलन।
"कहाँ रहऽ हऽ कका!" ... सँउसे गाँव जानऽ हे कि दीना हमर साढ़ू बने ले बेचैन हे ... आउ तोरा कुछ पते नञ् हो!" रामपुकार बाबू दीना दने ताक के बोललन। दिना भोला बन के एन्ने-ओन्ने देखे लगल। जइसे ई चरचा से ओकरा कोय लेना-देना नञ् हे।
चारो बगल हँसी-खुशी के माहौल हो गेल। कज्जो भीड़ में खड़ा कमली अँगुठा से मट्टी खोद रहल हल। दीना के नजर कमली के बगल में खड़ा मिंती से मिलल त ओकरा लगल कि कारू के खजाना हाँथ लग गेल हे। मिंती के लग रहल हल कि ऊ ठेहुना भर तहियावल गुलाब के पंखुड़ी में धँसल जा रहल हे ...।


( 2010 से मगध विश्व विद्यालय के मगही के एम.ए. के पाठ्यक्रम में लागू. "मगही पत्रिका" अप्रैल-2002, अंक-4 में प्रकाशित)




(2)

पतीत


धनंजय श्रोत्रिय


सुनहला चइन आउ केसवला घड़ी अप्पन हाँथ से उतार के कुसुम के देइत बोलल कमला, "लऽ, ई घड़ी तोरा खुब्बे पसंद आवऽ हलो ने कुसुम! ... आझ तोर जलम दिन के मोका पर तोरा, उनखा आउ अपना तरफ से ई उपहार देइत हियो।" आँख से बहते लोर आउ घिग्घी से फुटते हिचकी रोक नञ् पाल कमला।

"नञ् एकरा अपने पास रहे दी। ई तो उनखर देल उपहार हो तोरा हीं, जे तोर सादी के पनरहमा बरिस पूरा होवे के अवसर पर देलथुन हे ऊ।" सकुचाल-सकुचाल सन बोलल कुसुम।

"जब तोरा ऊ अप्पन मान लेलथुन हे, फेर की हम्मर आउ की तोर! अब सब कुछ तोरे हे, यहाँ तक कि उहो अब तोरे हथुन। ... दुखमा-सुखमा पनरह बरीस निमह गेल उनका साथ, अब बाल-बच्चन के देखते-सुनते निमह जात। भगवान के जे रूजुक।" टप-टप चुए लगल कमला के आँख।

कोय सैतिन के ई तरह के वेहवार हो सकऽ हे, कुसुम कभी सोच भी नञ् पइलक हल मन में। ऊ तो सोंचलक हल कि जहिया ऊ कमलेशजी के दोसर पत्नी के रूप में कमला से मिलत त ऊ असमान माथा पर उठा लेत। रो पीट के सँउसे मोहल्ला बोला लेत। लड़ते-लड़ते ओकर चोटी पकड़ के नोचे लगत। बकि कमला एतना बेबस आउ लचार सैतिन होत, ई बात कुसुम के कल्पना से बाहर हल। एकदम्मे बाहर।

"कुसुम! पनरह बरिस हो गेल इनखा से हमर बियाह के। एगारह बरिस से हम बस भी रहली हे ...। हम इनखर झूठ रोमा नञ् जारवन। गोस्सा-पित्ता में कुछ बोल देथ, ई अलग बात हे, बकि अपना जानते कभी कुछ कमी नञ् होवे देलन ई। एतना प्रेम-मोहब्बत साइते कोय मरदाना दे होत।" .... "ने मालुम तोर सुंदरता पर ऊ कइसे एतना मोहित हो गेलन कि दिन-दुनियाँ सब के ताखा पर रख के तोरा से बियाह करे के ठान लेलन । ... जऊन बाप आगू ऊ कभी मूड़ी नञ् उठइलन ... जऊन माय इनखा बुतरू समझ के दस बात सुना दे हलन, आझ ई बात पर, उनको इनका कुछ कहे के हिम्मत नञ् पड़ऽ हे। ... हमरा तो  सोंच-सोंच के कुहाग लगऽ हे कि कल हम बेटी के हम की कह के आउ आउ केकरा से बियाहम। पनरह बरिस के कइल-धइल पनरह मिनट में छाय हो गेल।"


कमलेश बचपने से मेहनती लड़का हल। एकसरुआ बाप के मदत करे में बारहे-चउदह बरिस के उमर से लगल रहऽ हल। बाप लिखनाय-पढ़नाय के पेशा में हलन, ई से कमलेश भी उहे काम में पिल गेल। बिहार के पहिलउका रीति-रिवाज के चलते सोलहे बरिस में कमलेश के बियाह हो गेल। बीस बरिस पुरते-पुरते एकर मेहरारू भी बसे लगलन। सब कुछ ठीक! सब कोय खुश! माय-बाप भाय-बहिन सब।

पढ़ाय पूरा करतहीं कमलेश नोकरी के जोगाड़ में दिल्ली आ गेल। सुरू-सुरू में जीए ले बाप के देखावल रस्ता काम आल आउ ट्युशन से ओकर गुजारा चले लगल। बाद में लिखे-पढ़े के सउख कमलेश के मीडिया लाइन दने ले गेल। भगवान भी फलिहँत देलन; कमलेश के अच्छा जोगाड़ हो गेल ई लाइन में। एगो बड़हन किताब पर कमलेश फरागत विदमान के साथ काम करे लगल। धीरे-धीरे दुनहूँ के घरइया संबंध हो गेल। एक दूसर के बीच घोलसार चले लगल। डॉ. राजीव भी कमलेश के बड़ाय करते नञ् थकथ दोस-मोहिम के बीच। आउ कमलेश भी डॉ. राजीव के प्रकांड बतावे में कोय कोर-कसर नञ् छोड़े। एक दूसर के पाके दुनहूँ निहाल।

भगवान के तो देनी हे, जे बनल हे ओकरा बिगाड़ऽ! जे जुटल हे ओकरा तोड़ऽ! ...रोड पर के ठोकर नियन कमलेश आउ डॉ. राजीव के संबंघ के बीच में उनकर सोडसी बेटी कुसुम आ गेल। कमलेश के प्रतिभा के कुसुम कायल, कुसुम के सुंदरता आउ अदा के कमलेश कायल! बकि समाज के लेहाज के आगू कमलेश कभी कोय उरेब कदम नञ् उठइलक। कली लेखा कुसुम के पंखुड़ी पर कभी हाँथ नञ् धइलक। लेकिन कब तक?  मेल-जोल के गरमी पाके धीरे-धीरे कुसुम खिले ल कसमसाय लगल। कमलेश के सफाई आउ संजम भी कुसुम के सुबास में उड़ गेल। पछुआ पवन के झोंका में कुसुम खूब झूमल। एकरा संजोगे कही कि एतना कुछ के बाद भी नञ् कुसुम अपन साख छोड़लक नञ् कमलेश अपन घर के प्रति मोह।

धीरे-धीरे ई मेल-जोल के दू चार से सैंकड़ो साच्छी हो गेलन। दुनहूँ के प्रेम सब कोय ले अजगूत हल। खास करके उनका ले जे कमलेश के घरवाली कमला के हमराज हलन। कुसुम के प्रति कमलेश के प्रेम आउ कमला के प्रति मोह, सबके चकरा के रख दे हल। कहीं कोय छिपाव नञ्, कहीं कोय दुराव नञ्। कुसुम के कमलेश के घर बेरोक-टोक आना-जाना रहऽ हल। आस-पड़ोस के औरत-बानी तो दाँत तरे अंगुरी दबा ले हलन। सिवाय डॉ. राजीव के जादेतर लोग-बाग कुसुम के कमलेश के प्रेमिका या पत्नी के रूप में पहचाने लगलन हल। कुसुम के हित-नाता आउ सक्खी-मित्तिन से भी कुछ छिपल नञ् हल।

दस तरह के लोग, दस तरह के बोली। बाकी आय-माय के राय में कुसुम आउ कमला बेकसूर हल। कमलेश दोसी हलन। एक घरनी के रहते भर में, दोसर से प्रेम समाज में केकरा रास आ सकऽ हे। समाज के कमला के प्रति सनेह हल आउ कमलेश के प्रति घिरना। कमलेश के मेधावी सोभाव भी उनका कलंक से बचा के नञ् रख सकल।

एक दिन सुरेंदर बहू फट पड़लन, "दीदी! अपने उनकर ई बेहवार कइसे सह ले हथिन? अब तो थाना-पुलिस, कोट-कचहरी सब खुल्ला हे औरत ले ... काहे डरऽ हऽ! अप्पन चीज के कोय अपना बउसाव भर बेरान काहे होवे देत। हमनहीं गोबाही देवे ल तैयार हिओ। ... नहिरा-ससुरा से बात करके उनका डरावऽ-धमकावऽ! ... आउ जब ऊ छिनार घर चढ़ो त झाड़ू से झड़ुआऽ दऽ।"
कमला के सुरेंदर बहू के बात तनिको नञ् रास आल। ऊ जबाब देलक, "देखऽ रेसमी के माय! सराबी, जुआड़ी नञ् मालूम की-की नञ् हथुन सुरेंदर जी, तइयो तूँ उनका साथ कुरच रहलऽ हऽ। आउ, ई जे सात खंडा सोना लटकल हो तोर देह में, जानते नञ् हिओ कि ई कागज वला चोरी के माल के हे।... कभी ई सब ले सुरेंदर जी के टोकलऽ तूँ? ... इनखा में सेवाय ई बात के तोरा की खराबी देखाय पड़ऽ हो। ... मेहनत-मजूरी से ई भागथ नञ्। मरदाना में पावल जाय बला सहंसर ऐब से ई छीछ काटथ। ... त एक ऐगुन ल हम उनका पर सहंसर अजलेम कइसे लगा सकऽ ही? ... भविस में तूँ हमरा से ई सब बात पर कभी बात नञ् करिहऽ! ... जा पहिले अप्पन निरार टोवऽ।"
"एक कान से दू कान, दू कान से बियाबान।" एक दिन ई खबर डॉ. राजीव के हो गेल। सन्न रह गेलन डॉ. राजीव। दिन के चैन आउ रात के नीन उड़ गेल दुनहूँ परानी के। कुसुम से तरह-तरह के चिरौरी कइलन। ... कुसुम सब बात के निड्डर बन के बतइते गेल। डॉ. राजीव के काटऽ त खून नञ्। हार-पार के कमलेश के घर आवे के बाट जोहे लगलन। सल-सल भर के रात कट गेल डॉ. राजीव के। एक रोज बादे कमलेश डॉ. राजीव के घर आल।
कमलेश के सब कुछ बदलल-बदलल देखाय पड़ रहल हल।  बकि बिना कोय अनिस्ट के अंदेसा के ऊ कुरसी पर बैठल रहल। दस मिनट बाद डॉ. राजीव पुछलन, "अपने तो हमर प्रिय मित्र हली, फेर हमरा साथ एतना बड़ा धोखा काहे? ... कुसुम के ममला में।"
"ई सच नञ् हे, डॉ. साहेब!" कमलेश धीरज से बोलल। " हम पचीस बेरी कहलिए होत कि कुसुम से हमर सामान्य रिलेसन नञ् हे।"
"सामान्य रिलेसन नञ् होला के मतलब ई थोड़े हे कि ...। हमरा नियन गाँधीवादी अदमी भी दू दिन से तोरा से बदला लेवे ला उताहुल हे।" डॉ. राजीव थोड़े रोसिया के बोललन। "बेटी के कीमत पर हम अपने साथ कोय प्रोजेक्ट पर काम करे ले तैयार नञ् ही। ... हमरा अंदर थोड़े स्वार्थ आ गेल हल, जेकर फल हम भुगत लेली।"
"डॉ. साहेब! हम अपने के गुनहगार ही। हलाँकि हमर गुनाह के सह देवे में खुद कुसुम आउ अपने के आधा दरजन परिवार के लोग भी दोसी हथ। बकि हम सब जिमेबारी अपन माथा पर लेही। ... हम अपने के घर में बैठल ही। ... समाज अपने के साथ हे। ...  परसासन अपने के साथ हे। कानूनी जानकारी भी अपने के पुरगर हे। ... अपने जे चाही से एक्शन ले सकली हे हमरा पर। हम बादा करऽ ही कि हम कोय डिफेन्स नञ् लेम।" गिरपड़ता नियन बोलल कमलेश।
नञ् हम अपने के प्रतिभा के कायल ही। ... कोय एक्शन लेवे से असमर्थ ही। हमरा मालूम हे हम जीत नञ् सकम। ... ऐसे भी हम सब कुछ हार चुकली हे्। ... अपने अगर अभियो हमरा दोस्त मानऽ ही त अपने से निहोरा हे कि कुसुम के आजाद कर दी।" डॉ. राजीव फफक पड़लन।
थोड़े गंभीर होके बोलल कमलेश, "डाक्टर साहेब! हम कुसुम के तरफ कहियो रुख नञ् करम, ई वचन दे ही। ... बकि जदि कुसुम हमरा तरफ रुख करत त चाहे हमर जान चल जाय, हम कुसुम के साथ गद्दारी नञ् कर सकऽ ही।"
 डॉ. राजीव कुसुम के कमलेश के सामने बोला के कौल करवइलन। संबंध के गुलदस्ता बिखर गेल।
कमलेश हमेसा से कमला के हमराज मानऽ हल। ईहो बात ऊ कमला से छिपा नञ् सकल। कमला सुन के खुस नञ् हो सकल। भीतर से भी नञ्। ऊ अपन पति के जानऽ हल। से अप्पन परिवार के होवे वला नुकसान के अंदाजा लगा लेकल।
दस महिन्ना के लगभग बीतल होत। कमला के परिवार दस साल पीछू चल गेल। कमलेश के तेज दिमाग भोथर हो गेल हल। भितरे-भितर मोम नियन गलते रहे ऊ। बकि विधि के विधान! एक बार फेर कुसुम कमलेश के गोदी में आके गिर गेल। भले बिचमान ओकर एगो ममेरा भाई हल, जे कुसुम के मसुआल चेहरा नञ् देख सकल।
फेर कमला के सामने चाहल-अनचाहल घटे लगल। सब कुछ पहिले जइसन, तिनको घट नञ्।
आउ, आझ कुसुम के जलम दिन हल। कमला हारल मन से कुसुम के उपहार देते हल, कमलेश के भेंट कइल घड़ी, जे कुसुम के बहुत पसंद हल। बकि आझ ओकर अंदर के दरद कुसुम से देखल नञ् गेल। जे दोबधा ओकरा परसान कइले रहऽ हल, ऊ छँट गेल। ऊ मन कड़ा करके बोलल, "दीदी! हम अपने के पति के आजाद करऽ ही!
बादा मोताबिक कमलेश भी कुसुम के डउँहड़ी से लगले रहे देलक।
कमला के पियराल चेहरा ललहुन हो गेल। ... मालूम नञ् पति के पाके इया "पतीत" के!

("मगही पत्रिका" मार्च-2002, अंक-3 में प्रकाशित 



(3)




 भवता

धनंजय श्रोत्रिय
  


मंजु माय के टूअर आउ बाप के दुलारी बेटी हल। ओकर बाप चनेसर बाबू, आँख में कान ई बेटी पर जान नेउछावर कइले रहऽ हलन। चारे साल के हल मंजु, जब ओकर माय ओकरा छोड़ के चल गेली हल। तहिना से करेजा में सटइले रहऽ हलन चनेसर बाबू। समय के सोहबत आउ बाप के दुलार के साथ मंजु जवानी में कदम धइलक। देखते बने एकर रूप। रूपे नञ्, लोग-बाग मंजु के गुन के भी कायल।

चनेसर बाबू के लगऽ हल कि ऊ दुआरी पर कोय हाँथी बान्हले हथ- "हँथिया बूले गामे- गाम, जेकर हँथिया ओकरे नाम"। जोड़ नञ् हल कोय मंजू के गाँव-जेवार में। कउन छउँड़किन के इरखा नञ् होवऽ होत मंजु से। कउन जउजवान के आँख तर सपना नञ् आवऽ होत मंजु के। बस गाँव के रीत आउ नाता-गोता के बन्हन उनकर गोड़ बान्हले रहऽ हल, जे से ऊ मंजु दने कोय उरेब कदम नञ् उठावऽ हल।

कउलेज में ऊ मनोविज्ञान के छात्रा हल। ले रे बलइया! हेड ऑफ डिपाटमेंट तक ह्युमेन तक साइकलोजी भूल जा हलन, जब मंजू क्लास करऽ हल। उनखर चेहरा पर के वुमेन साइकलोजी साफ पढ़ल जा सकऽ हल। धन्न विधाता।

बेटी तो पराया धन होवऽ हे। चनेसर बाबू के एक दिन छाती पर पत्थल रख के अप्पन चाँद लेखा बेटी के हाथ सालभर के खोज-ढूँढ़ के बाद मोहन के धरावे पड़ल। बकि बेटी से उरिन होके उनकर मन में चैन नञ्। रहे भी कइसे? हाँथ के खेलउना जे छीन के उड़ चलल चनेसर बाबू से। किलकते घर अब झात-झात करे लगल हल। हरसल जी उख-बिख करते रहे।

कइसहूँ साल-माल कट गेल। ई बीच गाहे -बेगाहे बेटी के देख आवऽ हलन चनेसर बाबू। थोड़े दिन मन में थीर रहे, फिर मन बिलोला के बिलोले। सल-सल भर के दिन-रात कटना मोहाल हो गेल हल, अब उनका लगी।

आखिर एक रोज राम जी हीं से बोलहटा आ गेल चनेसर बाबू के। देखते-देखते उनखर परान-पंछी उड़ गेल। मंजु बाप के ठठरी पर पछाड़ खा-खा घंटों बजड़ते रहल। कोय तरह से मोहन आउ गाँव के लोग ओकरा तीर-घींच के मट्टी से अलग कइलन। बड़ी मोसकिल से अपन मोह के मोटरी समेट पइलक मंजु, काहे कि ओकर जलमदेउआ, पालनहार आउ मीत जे परा गेलन हल।
समय तो पाँख लगा के उड़ते रहऽ हे। ओकरा साथ जे उड़ सके ऊ पुरसार्थी आउ जे पछड़ जाहे ऊ करमहीन। बकि, मोहन तो चनेसर बाबू के परखल हीरा हल।
ऊ कइसे कसउटी पर छोटा साबित हो सकऽ हल। एक दिन ऊ अपन परान-पिआरी मंजु के मोह छोड़ के ऊ रोजी-रोटी के जोगाड़ में चल पड़ल, सपना के नगरी - मुंबई।
थोड़े दिन मुंबई मेंएन्ने-ओन्ने चक्कर लगइला के बाद मोहन के एगो सिने-कंपनी लाइट-असिस्टेन्ट के काम मिल गेल। सपना के नगर मुंबई के "सपना के लोक" मोहन के अपना दन्ने जरूर खींचऽ हल, बकि एतना नञ् कि ऊ अपन मंजु के भूल जाय।
थोड़े हाँथ खुलला के बाद मोहन मंजु के भी मुंबई ले आल। ओकर बारह-चौदह घंटा के खटनी चाँद हाँथ में लेतहीं दूर हो जाय। हाँ, चाँद से कउनो कम हल थोड़े मंजु। छुट्टी के दिन मंजु जब चौपाटी ले के जाय मोहन त सैंकड़ो जोड़ी आँख ओकरा पिछुऐले चले। बकि मोहन के बुरा नञ् लगऽ हल। ऊ समझऽ हल कि ई सब घटना मानव-सोभाव के कारण घटऽ हे।
आझ आठे गजे के गेल हल मोहन आउ अब रात के दस बज गेल हल, बकि अबतक ओकर अता-पता नञ् हल। मंजु के जी नञ् लग रहल हल अकेले। अचोक्के कउल-बेल बजल। लपक के केबाड़ी खोललक ऊ।
"मंजु आज हम बहुत खुश ही।" आगे बढ़के अकबार भर लेलक मोहन मंजु के।
देह से लगले पुछलक मंजु," काहे कोय नाया बात हे?"
"हाँ, अब हम लाइटमैन बन गेली हे। साहेब कहलन हें कि अब हमर तनखा पाँच अंक में होवत आउ गाड़ी भी मिलत। एक बात आउ, अब हम आउट डोर सूटिंग में तोरो ले जा सकली हे।"
"अच्छा, हँटऽ! खुशी के सब दम अखनिएँ चुका लेवऽ। मंजु मोहन से अलग होवे के बनावटी कोरसिस करे लगल।
सच्चो हपते भर में मोहन के रहन-सहन बदल गेल। कल मंजु मोहन के साथ आउटडोर सूटिंग पर जा रहल हे। ओकर मन रात भर खुट-बुट करते रहल, "नाया दुनियाँ! नाया लोग! पता नञ् कइसन होत हुआँ के सबकुछ।"
मंजु जब चोटी-पाटी करके चले ले तइयार होल, त मोहन देखते रह गेल, "मंजु, तूँ हमर नोकरी छोड़ाऽ देवऽ! कम-से कम आझ तो लोकेशन पर हम ठीक से काम नञ् सकऽ ही।"
"अच्छ! कउनो शंकराचार्य पर फिलिम बनते है? बतइते हलऽ कि तिन-तिन हिरोदन काम रहले हे।" मंजु चम्हला के बोलल।
"अरे, चार बोलऽ ... चार! देखिहऽ, आज तोरा देखते मातर डाइरेक्टर साहेब स्टोरी चेंज नञ् कइलन हें त हमर नाम नञ्।" मोहन करेजा पर हाँथ मारते बोलल।
सच्चो लोकेशन पर "एक अनार चौदह बेमार" वला बात हो गेल। बड़का-छोटका सब स्टाफ कम से कम एक बेरी तो जरूरे मंजु के पर-परसानी पूछ गेलन" ई बात अलग हे कि मंजु सब के जबाब नञ् में देलक।
पैकअप होला के बाद डाइरेक्टर साहेब खुद आके मंजु आउ मोहन से मिललन - "इनसे क्यों नहीं करवाते कोई फिल्म मोहन? ... घर में बिठाकर खामखाह इनका करियर खत्म कर रहे हो।"
"सोचेंगे साहेब!" मोहन छुट्टी पावे के अंदाज में बोलल।
ठीक है, मैं कभी घर पर आता हूँ।" साहब बात आगे बढ़इलन।
"जी साहब!" औपचारिकता में बोलल मोहन। 
भर रस्ता गुमकी नाधले रहल। होटल के कमरा में आके ऊ चुप्पी तोड़लक। "देखलऽ मंजु! हम कहलियो हल ने।  ... अब डाइरेक्टर साहेब खुद्दे अयतन तोरा पास।"
"ए भाय! हमरा अच्छा नञ् लगो ई सब।" मंजु थोड़े उदास होके बोलल।
"अच्छा केकरा लगऽ हे मंजु! ... लोकेशन पर एक्कक अदमी तोरा घुर-घुर के देख रहल हल, त कि हमरा अच्छा लगऽ होत? बकि अब ले अयली हे तोरा त सूटिंग भर के तीन दिन तो काटहीं पड़त।" मोहन थोड़े शांत मन से बोलल।
"हमरा तो तोहर बौस के बेहवार भी ठीक नञ् लगलो। घुरी-घुरी दुनहुँ बाँही पकड़ के - " ठीक हो न! ... कैरी ऑन! ...  कैरी ऑन! " करते रहऽ हलन। हमरा तो झरकी बरो उनखा पर, जब ऊ बिना कोय कारन के पीठ पर हाँथ रख दे हलन।" मंजु मोहन के पीठ सहलइते बोलल।
ई लोकेशन पर सूटिंग के आझ आखरी दिन हल। पहाड़ी के ऊपर बड़ी सुंदर जगह चुन के सूट कइल जा रहल हल, एकदम से बादल के गोदी में। मौसम लोभावना हल, बकि मोहन के मन अशांत हल। ऊ देखलक कि मंजु अपन जगहा पर नञ् हे, ओकर बौस भी नञ् दिखलन। मन ओझराय लगल मोहन के। अचोक्के अबाज आल- "लाइट!"
मोहन हड़बड़ा के लाइट करे लगल। ई हड़बड़ी में ओकर गोड़ ठीक से टिकल नञ् रह सकल, छोट जगह पर। ऊ लड़खड़ा गेल। फेर की! लोघड़इते पहाड़ी के निच्चे सैंकड़ो फीट गहिड़ खाई में। ...  सेट पर कोहराम मच गेल।
कोय तरह से घायल मोहन के ऊपर लावल गेल। हाली-हाली लोग ओकरा हौसपीटल ले गेलन। एकरा मोहन के जिजिविसा कही इया मंजु के सोहाग के बल कि ऊ अब भी जिंदा हल। डाक्टर सब बतइलन कि कम-से-कम नब्बे दिन मोहन के बेड पर रहे पड़त, काहे कि गोड़ के साथ-साथ रीढ़ के हड्डी भी फ्रैक्चर हो गेल हे।
होस में अयला पर मंजु के हाँथ अपन हाँथ में लेके बोलल मोहन, "मंजु! हमरा माफ कर दऽ! ... हम कोय खुशी नञ् दे सकली तोरा"।
"भगवान पर बिसवास रखऽ सब ठीक हो जात।" मोहन के हाँथ थोड़े दबा के बोलल मंजु।
"बकि ई घड़ी तूँ कहाँ चल गेलऽ हल ... जब हम गिरली हल?" अप्पन मन के बोझ हलका करे ले पुछलक मोहन।
"काहे? ... हम तो ऊ घड़ी ममता जी के साथ हली। ... ऊ सीन में तो हिरोइन के रोल हल नञ्।" मंजु मोहन के चेहरा गौर से पढ़ते बोलल।
मोहन के आँख बह चलल।ओकर घिग्घी बँध गेल। ऊ भरल गला से बोल उठल, "मंजु, हमरा माफ कर दऽ!"
"बकि काहे? तूँ कि कसूर कइलऽ हे जे, जे माफ कर दी तोरा।" मंजु थोड़े अकुला के बोलल।
हम तोरा गलत समझली। ... तूँ नञ् जानऽ हऽ कि फिलिम लाइन में कोय सुंदर लड़की के साथ की बेहवार होवऽ हे। की-की घटऽ हे ओकरा साथ।" मोहन बोलते-बोलते हँफे लगल। ओकर सउँसे देह से पसीना चुचुआय लगल।
"ओऽ,..त तूँ इहे बात लगी चिंता में हलऽ आउ अप्पन ई दसा कर लेलऽ?" मंजु अचरज से पुछलक।
मंजु तूँ एकरा छोटा बात समझऽ हऽ। ... जदि तोरा हम्मर बौस आउ डाइरेक्टर साहेब दुन्नू के सोभाव मालूम रहतो हल त ई बात नञ् कहतऽ हल।"
मोहन ऐसे बोल रहल हल जइसे ऊ कोय बड़गो रहस के बात बता रहल हे।
"नञ्, तूँ गलतफहमी में हऽ। सुरू-सुरू में हमहूँ ईहे समझऽ हली। ... तोरा जान के अचरज होतो कि ई हौसपीटल में तूँ अप्पन बौस के रिस्तेदार बन के भरती हऽ। हमर पोरे-पोर तोर बौस के रिनी हे।" थोड़े रुक के बोलल मंजु, "जानऽ हऽ, जउन दिन भरती करवे ले लइलन हल लोग तोरा, ऊ दिन डाक्टर साहेब से तोर बौस कि कहलन हल?"
मोहन बिना कुछ बोलले अपन नजर बस मंजु पर टिकइले हल। मंजु बोलते गेल, " तोर बौस कहलन कि डौंट एंक्सियस अबाउट मनी, प्लीज सेव द लाइफ ऑफ माइ सन-इन-लॉ।"
मोहन के आँख से झर-झर लोर चूए लगल।
"आउ तोरा मालूम हो कि डाइरेक्टर साहेब खुद तोरा एक बोतल खून देलन हें।" मंजू जइसे बम फोड़लक हल मोहन के सामने। फेर बोलते चल गेल मंजु, "अदमी में अच्छा-बुरा, गुन-ऐगन दुनहुँ हरमेसा रहऽ हे। एक पच्छ देख के आदमी के सोभाव के अंदाजा लगाना गलत हे।"
साँझ के मोहन के फायनल रिपोट आ गेल। ऊ बिलकुल ठीक हो सकऽ हल। मन में कुछ-कुछ विचार रहल हल मोहन कि दरवाजा खुलल। एक्के साथ मोहन के बौस आउ डाइरेक्टर साहेब कमरा में अयलन।
"सो.. हाउ आर यू यंग मैन?" मोहन के बौस पुछलन।
ऊ उठे के नकाम कोरसिस करे लगल, त डाइरेक्टर साहेब कहलन, "नो-नो, लेटे रहो! शरारत नहीं करोगे तभी जल्दी ठीक हो पाोगे।"
बेड पर पड़ल-पड़ल मोहन हाँथ जोड़ देलक दुनहूँ देवदूत के सामने।
" मंजु ने हमलोगों को सबकुछ बता दिया है, तुम्हारे बारे में। हमें एक अच्छी कहानी मिल गई है। तुम जल्दी ठीक हो जाओ, फिर इस कहानी पर एक अच्छी सी फिल्म बनाएँगे। जिसके हीरो होओगे तुम और हिरोइन होगी हमारी बेटी।" दहिना हाँथ मंजु के पीठ के पीछे ले जाके ओकर बाँही थम्ह के अपना दने खिंचते डाइरेक्टर साहेब बोललन।
"और, इस फिल्म को फाइनेन्स करूँगा मैं।" मोहन के बौस बोललन। मोहन पानी-पानी हो गेल।
देवदूत चल गेलन। मोहन मंजु के बहुत देर तक अप्पन छाती से चिपकइले, सपना के लोक के बात करते रहल। मोहन के लग रहल हल कि हौसपीटल में भरती ऊ सबसे बड़ मुकद्दर के सिकंदर हे।

(मगही पत्रिका - अंक 8-9; अगस्त-सितंबर, 2002 आउ "मगही समसामयिक कहानी" - संपादकः डॉ- अभिमन्यु प्रसाद मौर्य, 2003 में प्रकाशित)


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जवान जिनगी जिआन जिनगी

धनंजय श्रोत्रिय



दुपुलिया पर गप-सड़क्का करते-करते हजारी लाल के धेयान पच्छिम रुख गेल त ऊ देखलन कि बेर लुकलुका रहल हे। बस, ऊ दसखुट्टक छोड़ के तुरते हुआँ से उठलन आउ कान पर जनउआ चढ़ा के डोल-डाल चल देलन डोलइत-डोलइत।

धनुस नियन टेढ़ा उनकर देह, चले घड़ी गोड़ घिसटा जा हल। लगे अब दुन्नू गोड़ बझ जात आउ पटवारी जी हबकुनिएँ गिर पड़तन। नञ् मालूम बीसो साल से ऐसन के ऐसने हलन ई। ठेहुना तक मैलछाह धोती आउ बगुलिया गंजी। आँख पर मोटा सीसा वला चसमा, जेकर एक डंटी कहिया टूटल, गाँव के साइते लोग बता सकऽ हथ। इहे चसमा के चलते पटवारी साहेब के नाम टोकनी साहेब पड़ गेल। सायते बाल-बुतरु जानऽ होत कि पटवारी साहेब के नाम हजारी लाल हे।

त टोकनी साहेब, यानि पटवारी साहेब, यानि हजारी लाल कभी बड़गर जिमेदार के रोबगर पटवारी हलन। की मजाल कि डीह पर के उनकर मकान आउ दलान, जे आस-पास के गाँव में दरबार के नाम से जानल जा हल, के आगू से गुजरते कोय खखर भी दे। ऐसे भी गाँव के कोय अदमी उनका भर जवानी में हँसते-मुसकुरइते नञ् देखलक। अब के बात अलग हे। बकि अब तो ऊ जीमन खेप रहलन हें। कोय मकसद नञ्, कोय उदेस नञ्। जिनगी जीना हे, तो जीना हे।

कोय जमाना हल जब पटवारी साहेब के तूती बोलऽ हल। उज्जर फहफह बस्तर। कन्हा पर रक्खल साफ-सफेद गमछी आउ माथा पर कसीदा कइल दुपलिया टोपी। गोर दपदप छोफिट्टा जुआन। सरीर से भी बरियार आउ कलम से भी। खैर इनखर सरीर के बल के तो जमाना नञ् देख पयलक, बकि कलम के तागत से इलाका कँपऽ हल। समय-समय पर इनखा नजराना भी देवे पड़ हल सबके। कोय काज-परोज करऽ हलन ऊ त अंटी से दमड़ी भी निकासे के जरूरत नञ् पड़ऽ हल इनखा।

जिमेदारी खतम, सबकुछ खतम। पटवारी साहेब के जउन दरबार में मुलकाती के लैन लगल रहऽ हल, अब हुआँ दिनों में झात-झात रहऽ हे। पटवारी साहेब बेटा के सुरुए से बड़का सहर में पढ़ा रहलन हल, जे अब पढ़-लिख के नौकरी कर रहलन हल। दू बेटा आई. ए. एस. अधिकारी हथन आउ एगो प्रोफेसर। पटवारी साहेब फेरा-फेरी तीनो बेटन हीं भाग अजमा अयलन, बकि इनखा कहैं के रहनइ रास नञ् आल। ऐसन नञ् हल कि बेटा-पुतहू झुट्ठो परसान करऽ हलन, बकि तीनों हीं पटवारी साहेब बस एगो एंटिंक पीस बन के रह गेलन हल।

ऐसे भी जउन मकान में ऊ "जुआन जिनगी" भोगलन हल ओकर इयाद हमेसा अयते रहऽ हल। हार-पार के बेटा पुतहु के नञ् चाहते भर में भी ई गाँव आ गेलन। अप्पन बंगला में, अप्पन दरबार में, जहाँ ई हलन आउ हल इनखर मिट्ठु - तोता राम। पटवारी साहेब अपन तोता के इहे नाम से अपन सुविधा मोताबिक बोलावऽ हलन इया बतिया हलन ओकरा से।


रात दू पहर बीत गेल हल। गाँव के लोग-बाग खा-पी के निढाल हो गेलन हल। मुसहरी पर पड़ल-पड़ल पटवारी साहेब मिट्ठु से बोललन, "वह चभक्का भूल जाव, बेटा जब सिकिया बोरन जाती थी।"
मिट्ठु नञ् मालूम कइसे की समझ गेल, जे टाँय-टाँय करे लगल हल।
"तोर अम्मा गेलउ मिट्ठु बेटा! ... सब कुछ खतम। बस ले-देके तूँ, एगो अरमेना रह गेले हें...। दुलहिन लोग कहऽ हे कि बाबू जी आप चुपचाप बैठे रहिए! ... कइसे चुपचाप रही भाय! ... मूरत महादेव ही? ... बेटा सब कहऽ  हे कि ... बाबूजी आप बहुओं के मुँह नहीं लगिए। ... अरे भाय! पैर टटात त मुँह से तो बोलहीं पड़त। ... फेर ऊ कहतन कि बाबू जी, आप कहीं जाते-उते नहीं, त पाँव कइसे थक जाता है। ... अब हम ई कइसे बता सकऽ ही कि जउन पाँव के बिना जरूरत के दसो लोग पचासो साल तक दाबते रहलन, ओकरा दबवावे के आदत हो गेल हे ... इया बुढ़ारी आ गेल हे हम्मर। अरे ..."
चूहा कुछ खड़खड़ावे लगल त पटवारी साहेब बोल उठलन, "के हे भाय? ... अब हमरा हीं की मिलतो? कुछ पुरान खाय के बरतन ... दू गो हाँड़ी ... एगो हँड़ुला ... आउ कुछ चाउर-दाल के सिवाय। ... आ ह हऽ ... आ ह हऽ ...!" पटवारी साहेब अपन खास अंदाज में खोंखे लगलन।
नञ् मालूम काहे खड़खड़ के अवाज बंद हो गेल। पटवारीजी फेर बोले लगलन, "मिट्ठु! बुधनी माय कहाँ रह गेलइ रे? ... जेहे से कि अठबारा लगे वला हे ... एकदम से डुबकी मार देलकइ। ... देख तो खाना में केतना दिक्कत हो रहल हे।" मिट्ठु पटवारी जी के बात समझ के फेर टाँय-टाँय करे लगल।
      मिट्ठु से बोलते-बतिऐते पटवारी जी के आँख लग गेल। थोड़के देर में उनखर बिन दाँत वला मुँह से "फुह् ...ह...फुह्... ह..." के अवाज निकले लगल। मिट्ठु ई ताड़ के ठोर पाँख दने घुमा के आँख मून लेलक।
"लालाजी बिहान भेल.... लालाजी बिहान भेल....।" भोरउआँ में मिट्ठु के अवाज गूँजे लगल।
लालाजी यानि पटवारी साहेब कनमनाल उठलन, "की कह हें मिट्ठु! अभी तो चार पहर रात होतउ ... खामोखाही जगा देलें। ... एक तो हमरा बुढ़ारी में हमरा ऐसीं नीन नञ् आवे, दोसरे तूँ अखनिएँ जगा देलें। ... त बोल- "सिरि राम जै राम, जै राम जै जै राम ... सिरि राम जै राम, जै राम जै जै राम ..."। मिट्ठु भी लाला जी के साथ परातकाली गावे लगल।
फेर सुरू हो गेल लाला जी के रुटीन, बरिसो-बरिस से नञ् बदले वला, जेकरा लोग-बाग दिन कट्टन कहऽ हथ। ... फेर साँझ आउ ओकर बाद रात।
पटवारी साहेब फेर मुसहरी पर पड़ल हथ। गोड़थारी में मिट्ठु के पिंजड़ा टँगल हे्। पटवारी साहेब बोल उठलन, "तोरो बुधनी माय हीं भेज देबउ मिट्ठु बेटा। ... जइसे ओक्कर सीधा जा हइ, ओइसहीं तोरो जइतउ! ... काहे के अब हम्मर सुगना उड़े वला हउ। ... मन नञ् लगउ जरिक्को। केत्ते उदास लगऽ हउ जीवन मिट्ठु! ... जेकरा बारह बिगहा बाँगा ओकरा डाँड़ा के डोर नञ्। ... के कहतइ कि हजारी लाल सतरह पोता-पोती के दादा हथ। देख ने! ... घर में भूत लोटऽ हउ। ... जब हमर परान-पखेरू उड़ जइतउ त ए बाजा ... ए गाजा ... ओ बाजा! ए फलान ... ओ ढेकान!! नञ् मालू की-की! ... हाँथी-घोड़ा से लेके कार-टेक्सी तक। ... लड्डू-पंतोवा से लेके रसुल्ला-गुलजामुन तक। फेर देखते-देखते सब कुछ बिला जइतउ। ... सब अरजल सोहा! ... जइसे पालल-पोसल बिरान हो गेल।" लाला जी के आँख झर-झर बहे लगल। ... आउ फेर मिट्ठु के भी आँख लोराय लगल। कुछ देर बाद दुनहूँ सुत गेलन।
महीना-खाँड़ बीत गेल। बुधनी माय आ गेलन हल। लाला जी के थोड़े चैन मिल गेल हल, बुधनी माय के अयला से।
एक दिन भोरउआँ में मिट्ठु टहकारल, "लालाजी बिहान भेल.... लालाजी बिहान भेल....  लाला जी...।" बाकि लाल जी टस-से-मस नञ् होलन। मिट्ठु पिंजड़ा में कउहार करे लगल।
बगल वला कोठरी में सुतल बुधनी माय ढिबरी बार के देखे आल। "आय हो राम ... लाला जी परा गेलन।" भोकार पार के काने लगल ऊ, "अजी हमर रजवा ... अब केकरा सहारे ... मटिया बैठतइ जी ... रजवा!  ... आ ह ह ...!!! " जइसे कोय मेहरारू अपन मरद ले काने हे।
दिने दू दिन में पटवारी जी के कुनवा एकट्ठा हो गेल। पचीस-पचास, फेर कत्ते ने। फेर गाजा-बाजा, लड्डू-पेंड़ा आउ ने मालुम की-की। काम-किरिया खतम हो गेल। फेर लाला जी के जमीन मिट्टी के मोल में बिके लगल। सब अरजल सोहा। लाला जी के याद करे वला, रह गेल बेचारा मिट्ठु आउ बुधनी माय।

 (आकाशवाणी पठना के मागधी कार्यक्रम में प्रसारित आउ "अलका मागधी" के मई 2002 अंक में प्रकाशित।)


(5)



चूक

धनंजय श्रोत्रिय

काँपते हाँथ से लिफाफा खोललन सतेंदर बाबू। जोड़-जोड़ से धड़के लगल उनकर छाती। आउ तह मोड़ल कागज के सीधा करके पढ़े लगलन ऊ हाली-हाली -
आदर जोग बाबू जी,
सादर चरण स्पर्श!

तोहनी सब तो अब नीलम के भूल चुकलऽ होत। इयाद करऽ होतऽ त हमर देल दुख के घाव हरियाऽ जाय के चलते। हम जानऽ ही कि ऊ दिन तोर जिनगी के सबसे कुहाग बला दिन होत, जब सोनू के साथ घर छोड़ के तोर साख में बट्टा लगा देली। हम जानऽ ही कि हमर चाल-चलन के चलते नेहा, स्वीटी आउ उपेंदर भइया के शादी-बिआह में भारी अड़चन खड़ा हो गेल होत। हम तो ई ले तोरा से अब माफी माँगे लायक भी नञ् ही। अपन सोआरथ के चलते हम एक दरजन लोग के सपना छीन लेली हे, जेकर सजा हमरा मिल गेल हे। हो सके त माय से कहिहऽ कि ऊ ई अभागल बेटी के माफ कर दे!
हमरा मालुम नञ् कि ई चिठ्ठी हम तोरा काहे लिख रहली हे। शायद अपन मन के बोझ हलका करे ले। इया नेहा-स्वीटी के हमर रस्ता अख्तियार करे से मना करे ले। ... जिनगी में पहिला दिन अपने इया माय से कुछ कहते डर नञ् लग रहल हे।
बाबू जी, जउन दिन उपेंदर भइया मइया के सह पर सोनू पर हाँथ उठा देलन, ऊहे दिन से घर के दाना-पानी हमरा ले लगभग उठ गेल हल हम्मर। हम सोंच लेली हल कि चाहे जे जे गत हो जाय बकि सोनुएँ के साथे जिअम-मरम। जब हम सोनू से कहली कि कहैं भाग चलऽ त ऊ एकदम तैयार नञ् होल। ऊ अपने सब के मरजी से शादी करे चाहऽ हल, जे कहियो हो नञ् सकऽ हल। बड़ी आरजू-मिन्नत से ऊ तैयार होल। आउ हमनी भाग चलली।
तोहनिन सबके डर से छो महिन्ना हमनी ई शहर से ऊ शहर, ऊ शहर से ई शहर भटकते चलली।
पैसा-कउड़ी झरे लगल हल। कोय तरह से हमनी पूना पहुँचली। हुआँ सोनू के एगो दोस्त इंजीनियर हल। नाम हल रंजन। भला आदमी हल ऊ। रहे-सहे के ठेकाना के साथ-साथ एक महिन्ना में नौकरी भी देलाऽ देलक रंजन सोनू के अपने साथ।
सब कुछ ठीक कट रहल हल। एक दिन सोनू के दोस्त रंजन के जन्म दिन हल। ओकर चार गो दोस्त भी ऊ मोका पर आल। पाटी में दारू-शराब भी चलल। सब जिद करके सोनू के भी पिला देलन। जब सबके दारू पिअल हो गेल, तब सबके खाना खिलइली। बकि उनकनहिन के लाल आँख देखके जी डेरइते रहल। ऊ दिन सबकुछ ठीक-ठाक कट गेल।
चार दिन बाद दुपहरिया के कोय कॉलबेल बजइलक। दरबाजा खोलली त रंजन के एगो दोस्त खड़ा हल। पाटी वला दिन आल हल ऊ। ऊ बतइलक कि बगल से गुजर रहल हल त सोंचलक कि हमर हाँथ के एक कप चाय पीते जाय। बड़ी सकोच से हम ओकरा भीतर बोलइली। दू कप चाय बनइली। चाय चखला पर ऊ कहलक कि ऊ चीनी जरी जादे पीअऽ हे, जेसे एक चम्मच चीनी आउ चाही। चीनी लाके देली। चाय पीते-पीते हमर आँख मुनाय लगल। फेर हमरा कुछ पता नञ् चलल। आउ जब होश में अयली त ऊ हमर इज्जत से खेल चुकल हल। हम कुछ बोलती हल ओकर पहिले ऊ धमकी देलक कि जदि हम मुँह खोलम त ऊ सोनू आउ रंजन के बता देत कि हमहीं ओकरा बोलइली हल।
ऊ घड़ी हम चुपहीं रहे में भलाय समझली। बकि ई नञ् जानऽ हली कि ई नरक के तरफ हमर पहिला डेग हल। चार दिन बादे दुपहरिया में ऊ फेर आ गेल। जब हम ओकरा भगावे लगली त ऊ अपन पहिलौका धमकी दोहरावे लगल। ऊ कोढ़ी के आगे हम बेबस हली। ... मना नञ् कर सकली।
हाय रे हमर जरल भाग! पाँचे मिनट में फेर कॉलबेल बजल। दरबाजा के छेदा से देखली त सोनू हल। एक कमरा के फ्लैट में हम ओकरा कहाँ छिपइती हल। सोनू भीतर आल। हम ओकरा सब कुछ सच-सच बता देली। ऊ न आव देखलक न ताव, बगल में रखल ताँबा के गणेश जी जोड़ से ओकर माथा पर पटक देलक। खून के फचक्का से एक तरफ के देबाल रँगा गेल कोठरी के। चीख सुन के आस-पास के लोग जुट गेलन। थोड़े देर में पुलिस आ गेल।
फेर की! थाना-पुलिस आउ कोट-कचहरी चलते रहल छो महिन्ना। हमन्नी के बेचारा रंजन भी पेरइते रहल। कल सोनू के छो साल के कड़ा सजाय मिल गेल। जज साहेब फैसला देलन- "हलाँकि मुजरिम सोहन ने हत्या जैसी संगीन जुर्म को अंजाम दिया है, परंतु जिन हालात में उसने मखतूल किशन लाल की हत्या की है, उसे ध्यान में रखते हुए, सोहन लाल को छह साल कैद-ए-बामशक्कत दी जाती है।
बाबू जी ई ठीक हे कि रंजन सोनू के सच्चा दोस हे, बकि छो महिन्ना के भाग-दौड़ ओकरा तोड़ के रख देलक हे। ऊ अब घर जाय चाह रहल हे। हमनी के पास अब पैसा-कउड़ी भी निघट चुकल हे। रंजन कोय बेवस्था करके भी जात त कब तक ले। अकेल्ले कहीं काम खोजे में जी डेराऽ हे अब।
ई सच हे कि देश प्रगति कर रहल हे। बकि विचारे वला बात ई हे कि देश के प्रगति कउन-कउन क्षेत्र में जादे होल हे। हमरा तो लगऽ हे कि हमनी सबसे जादे बेविचार, अराजकता आउ भ्रष्टाचार में प्रगति कइली हे। बेविचार आउ अराजकता हमर जी डेरावे हे। हमर की, कोय अकेलुआ औरत के जिनगी सुरक्षित नञ् हे।
अब अपने हीं बताथिन कि हम की करूँ, कहाँ जाऊँ। बिडंबना ई हे बाबू जी की घर से चले घड़ी जब हम बालिग नञ् हली त कड़ा-से-कड़ा फैसला ले लेली, बकि अब हम जब बालिग हो चुकली हे त हमरा कोय रस्ता नञ् बुझा रहल हे। तभिए हम अपने के चिट्ठी लिखे बैठली हे।
कभी-कभी जी में आवऽ हे कि जहर-माहुर खा लूँ। बकि ई सोनू के साथ धोखा होत। बेचारा हमरा चलते कउन दुख नञ् भोगलक। हो सके त सोनू के पापा-मम्मी के खबर कर दीहऽ।
हमर पता हे - 
रंजन कुमार (अभियंता)  द्वारा, श्री मुकुंद बनसोड़े
म. नं. - 303, शनिवार पेठ, पुणे (महाराष्ट्र) 
 
अपने के अभागल बेटी
नीलम

सतेंदर बाबू कुरता पहिनलन आउ रपरपाल कैलास बाबू दने चल पड़लन। जहिया से सोनू आउ नीलम फरार होल हल, तहिया से आज पहिला दिन सतेंदर बाबू के कदम अपन दोस दने बढ़ रहल हल। रस्ता में उनखा कैलास बाबू से होल बतकुच्चन के एकक बात इयाद आ रहल हल, जे नीलम के गायब होला के बाद ऊ कैलास बाबू के सुनइलन हल। एकरा कैलास बाबू के सबर कही कि ऊ सतेंदर बाबू के बात पर लाठी-भाला आउ बंदूक-पिस्तौल तक नञ् गेलन। काहे कि लोग के नजर में उनकर बेटा सोनू गुनहगार हल, जे मुहल्ला के एगो नबालिग लड़की के भगा के ले गेल हल।
कैलास बाबू से भेंट होला पर दुनहुँ दोस के बीच कोय बातचीत नञ् होल। बस, सतेंदर बाबू नीलम के चिट्ठी कैलास बाबू के पकड़ा देलन। चिट्ठी पढ़ते घड़ी उनकर चेहरा पर कै तरह के रंग आल आउ चल गेल। अंतिम में लग रहल हल कि कैलास बाबू के कोय फीचल कपड़ा नियन गार देलक हे।
ऊ एक्के लाइन बोल सकलन- "घर में बता के अयलऽ हे।"
"नञ्।"
"ठीक हे, मोनू जाके भउजी के सबकुछ बता देत। हमनी अबहिएँ निकल चलऽ!"
थोड़के देर में दुनहुँ पुणे जाय वली गाड़ी पर बैठल हलन।

(आकाशवाणी पटना से "मागधी" कार्यक्रम में प्रसारित एवं "मगही पत्रिका" के मई-जून, 2002 में प्रकाशित)


(6)
मस्टरनी माटसा

धनंजय श्रोत्रिय


      मस्टरनी माटसा के देख के संजय हरान-परसान। सोंटल शरीर पर सादा-सपट्टा सूती साड़ी, सुत्थर चेहरा पर रंचमात्र के सिंगार नञ्। कमर के नीचे तक लटकल कार नागिन नियन केस, ऊपर में एगो रब्बड़ से ऐसे बाँधले, जैसे आँटी अँटिआवल जाहे। गहना के नाम पर दुनहुँ कलाय में खाली चर-चरगो चूड़ी। सिंगार के नाम पर खाली डबल-डबल आँख में पातर-पातर काजर। जब तक संजय कुछ आउ छगुनत-सोंचत हल तबतक मस्टरनी माटसा ओकर विकरम टेंपू में ठीक ड्राइवर सीट के सामने आके बैठ गेलन। व्याकुल चेहरा घुरी-घुरी कलाय में बंधल घड़ी में टैम निहार रहल हल। हलाँकि, पछलौका सीट में अभी दू सीट खाली हल बकि संजय ने मालूम की सोंच के घुर्र से विकरम चला देलक, स्टेशन से अपन गाँव राजापुर के स्कूल ले। इंटर स्कूल में बाइलोजी पढ़ावे वली मस्टरनी माटसा के लेके। जे ओकर गाँव में आठे दिन पहिले ज्वान कइलन हल। अजीब हलन ओकर गाँव के लोग- सर के भी सर, मैडम के भी सर आउ अब मस्टरनी जी के मस्टरनी माटसा! ई भी कोय संबोधन हे-  या तो मस्टरनी साहब बोलऽ या मास्टर साहब, बकि के केकरा समझावऽ हे गाँव में। सब अप्पन मन के हथ।
      खबरची बतैलक हल संजय के कि मैडम के इंजीनीयर पति सादी के छोवे महिन्ना बाद ज्वाइनिंग के पंद्रह-बीस दिन पहिले, रोड एक्सीडेंट में गुजर गेलन हल। इनकर सस्सुर तो इनका हीआँ ज्वाइने नञ् करे दे हलन, ई बिगड़ल गाँव में, बकि बीडीओ भाय आउ सीडीपीओ भाभी उनका सबसे लड़-झगड़ के ज्वाइन करा देलन। शुरू-शुरू में तो मैडम के उनकर भाभी के गाड़ी छोड़ जा हल, बकि फेर मैडम मना कर देलन आउ पटना से पहिले गाड़ी से, फेर राजापुर तक विकरम से जा हथ।
      स्कूल भिजुन गाड़ी रूकल त खलासी छोटका दौड़ के संजय भिजुन आल आउ सौ रूपिया के ताजा नोट देते बोलल, संजय दा, मस्टरनी माटसा के पंचानवे रूपिया दे देहुन।’’ तब तक मैडम उतर के संजय भिजुन आके बोललन, “पैसा लौटते समय लेम, देर हो रहल हे।’’ संजय ऊ करारा नोट के तबतक सहलयते रहल, जबतक मैडम आँखतर से इँड़ोत नञ् हो गेलन। दुपरिया के बाद संजय के ड्राइवर मुन्ना के आ जाना हल, जे ई विकरम के रेगुलर चलावऽ हल आउ अभी बहीन के शादी के चलते छुट्टी पर चल रहल हल। संजय मोबाइल से मुन्ना के नंबर लगा के कहलक, मुन्ना, अब कोय दोसर गाड़ी खोज लीहें आउ आके अपन हिसाब किलियर कर लीहें। मुन्ना एकर पहिले कि कोय सफाई देत हल अपन, संजय मोबाइल बंद कर देलक। अब संजय के मन घबड़ा रहल हल ने मालूम काहे, फ्लैश बैक मीरर में चमकइत बार-बार मैडम के चेहरा आउ हचका के कारण बार-बार उछाल मारइत उनकर शरीर संजय के चकरघिन्नी कर के रख देलक हल। दूरा पर आके ऊ निढ़ाल पड़ गेल।
      खइमहीं नञ् बेटा!’’
माय के अबाज सुन के संजय चकचेहा गेल। फेर बिना कुछ बोलले घर चल पड़ल उठ-पुठ के माय के साथ। माय आगू में खाना रख देलन। संजय खाना शुरू कइलक त अइना के सामने चोटी करते पिंकिया के ठठा के हँसे के अबाज सुनाय पड़ल। माय टोकलन, काहे घोड़घासिन नियन ठठा रहलहीं हें गे।’’ पिंकी हँसते रहल फेर हँसते-हँसते बोले लगल, “भइया ने भतबा में दलिया के जगह पर पनिएँ मिला देलखिन।’’
      संजय के अपन गलती अहसास होल त ऊ अकबका गेल। देखऽ हे, त थारी के सानन दाल आउ पानी से घटमाघट होल हे। ऊ मनेमन सोंचलक- कमाल हे। फेर माय से बोलल झेंपते गलती से गिलसवा वला पनिएँ डाल देलिऐ माय, भतवा में दलिया के जगह पर!’’
      माय भड़कलन, “ने मालूम कउची सोंचते रहऽ हे आझकल। आउ, आझ मुनमा के छुट्टी काहे कर देलहीं। फोन कैलको हल कि संजय भइया हमरा गड़िया पर से हँटा देलखिन। ... आउ अब चलइतउ के गड़िया के।’’
      हम खुद्दे चलइवइ।’’ संजय बोलल।
      बप्पा अयथुन त पुछथुन ... अब तैयारी करल हो गेलउ नौकरी के त टेंपू चलइमे? जे देखतइ से की कहतइ।
      कहतइ की? जीवन भर के लिए थोड़े टेंपू चला रहलिए हे। पिंकिया के सादी तक चला ले हिऐ। बैठल मच्छी मारे से तो अच्छा है।’’
      पगला गेलहीं हे रे! जे कर-कुटुम देखतइ से की कहतइ? पढ़ाय-लिखाय छोड़के टेंपू चलावऽ है।’’
      ज्वाइन नञ् करवइ माय?’’ संजय अबाज तेज करके बोलल।
      अपने ने कहलहीं की दरोगा में ज्वाइन नञ् करम, हम आउ अच्छा नोकरी के तैयारी करम।’’ माय कहलन।
      बाबू जी नञ् उछल रहलखिन हल कि हमारा सपना था कि हमरे यहाँ भी कोय बरदी पहने।’’
      “ऐंह! ... एतना बाप के आदर करेवला कनौं है जे। ई नञ् कहें कि अब पढ़े में मन नञ् लगे हे, आउ हमरा से बड़का नोकरी के तैयारी नञ् होत।’’
      “पागल हें तों, जे मन में अयतउ बोलते रहमे।’’
      “टेंपू घुरा लेलिअइ जरी त डराइबर हो गेलिऐ... सब-इंस्पेक्टर के नौकरी ज्वाइन कर लेवइ  त बी.पी.एससी. आउ यू.पी.एससी. नञ् निकाल पइवइ।.. बढ़ियाँ बात तो तों कभी बोलवे नञ् करमे।’’
      “अच्छा बढ़ियाँ बात कहऽ हिऔ..... पिंकिया के बजार लेले जाहीं साथे.... कुछ साज-सिंगार खरीदतइ खरदा देहीं।’’ माय कहलन।
      “हमरा से नञ् होतउ ई सब। बस स्टेशन जाके उतार देबउ, अपना बजार करके स्टैंड आ जइतउ फेर ...।’’
      “बस हो गेलौ। खाली बात करतउ बड़-बड़।’’
      ठीक पौने चार बजे संजय पिंकी के गाड़ी पर बैठेले स्कूल भिजुन आके गाड़ी लगा देलक। स्कूल के टुनटुनिया बजतहीं रपरपाल तिन-चार मास्टर आके संजय के विकरम में बैठे लगलन। संजय आउ सबारी के आगू-पीछू बैठावे लगल। एगो मास्टर साहेब पिंकी के किनारे घँसके कहलन त तुरत संजय बोल उठल, “ई मैडम के सीट है।’’
“कौन मैडम।’’ “मस्टरनी माटसा।’’
      “अच्छा! रिजर्व करले हहुन।... ठीक है भाय बेचारी के दिक्कत नञ् होवे।’’
      “एकाधे मिनट में मैडम.... नञ्-नञ्... मस्टरनी माटसा भी आ गेलन।’’
      “मैडम के देखतहीं पिंकी चहक उठल... “अर...रे! शालू तूँ हीआँ?’’
“हाँ।’’ मैडम पिंकी के हाँथ हाँथ में देते गाड़ी पर बैठलन, “बकि तूँ यहाँ कइसे पिंकी?’’
“ई तो हमर गाँव हे।’’ पिंकी बोलल। संजय अवाक हल।
“तू दुनहुँ पहिले से परिचित ह?’’ पंडीजी माटसा पिंकी से पुछलन।
“हाँ सर। शालू आउ हम होस्टल में पटना में साथे रहऽ हली।’’ शालू यानि शालिनी यानि मैडम, यानि मसटरनी माटसा के कुम्हलाल चेहरा थोड़े देर ल दमक उठल।
      “जो टेंपू चला रहा है शालिनी मैडम! वो पिंकी का भाई है ... इस गाँव का सबसे  मेरिटोरियस लड़का है... अभी सब इंस्पेक्टर में ज्वाइन करने वाला है... यदि ईश्वर ने चाहा तो यू.पी.एससी.-बी.पी.एससी. भी निकाल लेगा।’’ पंडीजी माटसा एक साँस में कथा नियन सब कुछ बाँच देलन, शालिनी मैडम के सामने। इसके ड्राइवर के बहन की शादी थी इसलिए संयज ड्राइबरी का मजा ले रहा है... मजाकिया है बचपने से। कल पापा आ जाएँगे त इसका मजाल नहीं कि गाड़ी पर बेठेगा।’’ पंडीजी माटसा के कथा जोर-जोर से चालू हल, विकरम घरघरैते स्टेशन दने बढ़ल जा रहल हल। मनेमन सराह रहल हल संजय पंडीजी माटसा के। जे परिचय देवे के कब--कब मोका लगत हल, ऊ माटसा तुरतम दे देलन... ऊ भी विस्तार से। ओकर पूरा ध्यान फ्लैश बैक मीमर पर हल आउ ओकरा में कभी आधा कभी पूरा उभरइत शालू मैडम के शरीर पर। जब भी कभी हचका आवे त संजय के दिल उछल के बाहर आवे लगे। ऊ मने मने अइना बनावे वला के भी धन्यवाद दे रहल हल।
      “यात्रीगण कृपया ध्यान दें। 505 अप मोकामा पटना पैसेंजर के अपने निर्धारित समय से डेढ़ घंटे आने की सूचना है।
      सब मास्टर एक साथ बोल उठलन, “रोज के इहे टोटा हे।’’
      पिंकी शालिनी से बोलल- “अच्छा होलै। उेढ़ घंटा तो हमनहीं बातचीत कर सकऽ ही।  चलऽ ने शालू कुछ समान खरीदवा दीहऽ।’’ शालू मैडम सहमत हो गेलन। ऊ दुनहुँ बजार चललन त संजय भी गाड़ी खड़ी करके साथ हो लेलक। पिंकी ई बात पर भाय के कुछ बोले चाहऽ हल बकि चुप रह गेल। पीछू-पीछू चलइत संजय दुनहुँ के बात अकान रहल हल बकि ठीक से सुन नञ् पारहल हल। फेर अचानक एगो बंद दोकान के सिड़ही पर जाके बैठ गेल पिंकी। ओकर चेहरा बिलकुल हलकान हल। शालू मैडम भी उदास हलन। दुनहुँ चुप। संजय पास पहुंचल त पिंकी बोलल, “भइया! आज समान नञ् खरिदबो। फेर कानल नियन शालू मैडम के साथ घटल घटना बतावे लगल। संजय जैसे पहिले से सब कुछ जान रहल हल। सुनके ऊ कोय प्रतिक्रिया नञ् दे पइलक। ऊ ठकमुरकी मारल नियन खड़ा रहल।
      आज सनिच्चर हल। संजय पप्पा के इंडिगो लेले इएमयू के इंतजार कर रह हल। गाड़ी लगतहीं ऊ बेचैन होके शालू मैडम के खोजे लगल बकि ऊ कनहुँ नजर नञ् आ रहलन हल। थोड़े देर बाद ऊ स्टैंड दने घूमल त पीछे से पहनावा-ओढ़ावा देखतहीं ऊ पहचान लेलक कि ई शालू मैडम हथ। ऊ दू तीन बार हौरन देलक। मैडम बिना पीछे देखले साइड होके चले लगलन। संजय गाड़ी थोड़े आगे करके तिरछा काटलक, अब शालू मैडम गाड़ी के तरफ देखलन हल। तब तक संजय दौड़ के आगे से किनारे आके ड्राइविंग सीट के बगल वला गेट खोल के इसारा कैलक। मैडम बिना कुछ बोलले गाड़ी में बैठ गेलन।
      “आज अपने के गाड़ी कहाँ हे?’’ पुछलन ऊ।
      “मम्मी पप्पाजी से डाँट सुनवा देलकइ। गाड़ी ड्राइवर चला रहले हे।’’
      “त अपने हमरा रीसीव करे अयली हे।’’
      “हाँ, पिंकी पप्पाजी से औडर करवइलके हल। कल पिंकी के सब देखे आ रहलथिन हे। मम्मी के आदेश से कल अपने के भी आना है।’’
      “अर्रे! कल संडे है भाई।’’
      “संडे के कहीं आवे जाय ले शास्त्र में कउनो मनाही है?’’
      “मनाही तो न है बाकि अपने काहे पिंकी के पैरवी कर रहली हे?’’
      “पिंकी के भाई न हीऐ मैडम ओकर इच्छा तो पूरा करहीं पड़तइ।’’
      “पिंकी के इच्छा रहतइ कि हम सब दिन अपनहीं ही बैठल रही त हम बैठल रहवइ?....
      “कुछ नञ् कहथिन! अपने एक दिन ल इजाजत लेवे चाहऽ ही त एक दिन ल, सब दिन ल चाहऽ ही त सब दिन ल इजाजत ली। हमरा तनिक्को इतराज न हे। ... किनखो कोय इतराज नञ् होत।’’
      मैडम के अपन गलती के अहसास होल, बकि ई बात से उनखर चेहरा लालमलाल हो गेल। फिन ऊ अपन झेंप मिटावे ल कहलन, “अपने पगला तो नञ् गेली हे।’’
      “नञ्, हम बिलकुल ठीक ही।" कहिये से ई बात कहे चाहऽ हली बकि हिम्मत नञ् कर पावऽ हली।"
"अब कहाँ से हिम्मत आ गेल अपने में?"
"अपने के चेहरा के चमक से ... एकर ललाई से!"
अच्छऽ! ... " संजय के बात के प्रतिरोध के साहस नञ् जुटा सकल शालू। थोड़े देर चुप्पी बनल रहल, ने मालुम कौन सपना में डुबल रहल दुनहुँ। फेर स्कूल आ गेल। बातचीत के सिलसिला अचानक रूक गेल।
      आज एतबार हे। प्रियंका यानि पिंकी के देखे ल ओकर ससुराल वला आल हथ। शालू अपन सहेली पिंकी के बात टाल नञ् सकल। अपन सीडीपीओ भाभी आउ बीडीओ भाय आउ भतीजा गोलू के साथ घरबइया बनल हे ऊ। लड़का के बहिन सब बड़ी चालू हलन, चट्टे भर घर के टोह लेवे लगलन। फेर बारी बारी से अपन माय के कान में सबके रिपोट करे लगलन।
      जब लोग के सामने सज-सँवर के प्रियंका आल त ओकर होवेवली सास बिफर पड़लन, “अपने सब के तनिको सहूर न हे, जे कन्या के विधवा के साथ भेज देली।’’
      सुन के सब के काठ मार गेल। प्रियंका के पिताजी बतइलन कि शालू पिंकी के कॉलेज फ्रेंड हे, ई गुना एकर बोलावा पर आल हे, बकि पिंकी के सास मुँह टेढ़ा-टुघ्घुड़ करके रहलन। भविष्य में ऐसन गलती नञ् दोहरावे के बात पर ऊ शांत होलन।
      ई बात के शालू, ओकर भइया-भाभी आउ प्रियंका के माय बाबूजी बहुत बुरा लगल हल बकि लड़की के जग भरनठ नञ् होवे ई सोंच के सब चुप रह गेलन हल। आउ, संजय के तो लग रहल हल कि ओकर दिल में कोय नस्त। भोंक देलक हल। मन कड़ड़ करके सब कुछ झेल गेल ऊ।
      आज प्रियंका के शादी हल घर भुकभुकिया बॉल से गजगजा रहल हल। शहनाई के मधुर स्वर सबके नेहाल कैले हल। दरवाजा के सामने वरमाला के वेवस्था हल। बराती के दरवाजा लगला के बाद वरमाला होवे लगल। आजकल के सहरूआ चलावा में बराती में की मरद की औरत सब आवऽ हथ। आज भी अयलन हल। लड़का के माय भी।
      कन्या के बोलावल गेल। प्रियंका के साथ शालिनी सलमा-सितारा टँकल वस्त्र में, अंगेअंग आभूषण से लदल। माँग में दप-दप सिंदूर भोगारले गजगामिनी नियन चलल आ रहल हल। करीब ऐते प्रियंका के सास चकचहा के शालिनी के देखे लगलन। संजय उनकर पास जाके बोलल- ”मम्मी जी ई प्रियंका के भाभी हथ- शालिनी, शालू यानि मसटरनी माटसा। हमर अर्धांगिनी सब अपने के किरपा से संभव होल हे प्रियंका के सास अवाक हलन उनकर मुँह से कोय बोल नञ् फूट रहल हल।

 

 





 


 
 






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