Sunday 16 July 2017



(7)
एगो कवि के आत्मकथा

धनंजय श्रोत्रिय

       पचास बरिस पहिले मट्टी के मकान में निरा देहात के एगो गाँव में जलमलिऐ, ई गुना हमर जलम तिथि औन द रेकार्ड न है। ई फेरा में जोतसी रहते भर में भी हमरा मालूम नञ् है कि हमर जलम कौन नछत्तर में होले हल। मुदा ई बात तय है कि हम कउनो ऐसने नछत्तर में जलमलिए होत, जेकरा पर सरसती माता के दृष्टि दहिन होतइ, काहे कि हमरा में बुतरूए से तुकबंदी में बतिआय के दुर्लत लग गेलइ हल। स्कूल में जब अंताछरी होवऽ हलइ त हमर टीम के जीत तय रहऽ हलइ, जे से हुआँ हमर डिमांड बनल रहऽ हलइ। लड़किन सब भी हमरा अलगे नजर से देखऽ हलथिन, जेकरा हम ऊ टैम “प्यार” समझ के मन सेरइते रहऽ हलिऐ। हलाँकि बाद में हमरा हकीकत पता चललइ तब समझलिऐ कि हम चलनी में पानी छान रहलिऐ हल। खेती-पाती के काम में सब के साथ मेहनत नञ् कर पावऽ हलिए, ई गुना चच्चा-भइया लोग “कममोढ़िया” के संज्ञा से विभूषित कर चुकलथिन हल। खेती में हम रिजेक्टेड हलिऐ, रिजेक्टेड - “कमाना ने कजाना साढ़े तीन रोटी खाना।”
      माय-बाप प्यार से हमरा वीर जमान कहऽ हलथिन, हलाँकि वीरता के हमरा से दूर-दूर तक के कोय नाता नञ् हलइ। सच कहऽ त हमरा ऊ सिकिया पहलमान कहथिन हल त जादे सही रहतइ हल। लोग-बाग हमर अधम कविवला भाषा सुनके हमरा कविआठ के संज्ञा देले हलथिन। हलाँकि कविआठ में कुकाठ के “बू” आवऽ है, जे चलते हमरा जब कोय कविआठ के जगह पर “कविअठवा” कह दे हल तब सोहामन नञ् लगऽ हलइ, बकि जनता-जनार्दन से के एर ले सकऽ हे, बरदास करके रह जा हलिऐ। ऐसे बेला-मोका ऐतराज जतावे से भी बाज नञ् आवऽ हलिए। समय बदललइ। पम्हीं भिंजते-भिंजते “कवी” फेर “कवी जी” कहके पुकारे लगलथिन लोग। “कवी” से “कवी जी” बने के बीच के प्रक्रिया हमरा ले कउनो बकड़ी निछड़े से कम नञ् हलइ। जे इत्मिनान बकड़िया के चेहरा पर अपना “पाठा-पाठी” देख के होवऽ है उहे इत्मिनान हमर चेहरा पर रहऽ हलइ जब कौनो स्थानीय कार्यक्रम में अधिकार पूर्वक मय डायरी हम मंचस्थ होवऽ हलिऐ। आउ, जब हमर तुकबंदी पर पब्लिक के ताली पड़े लगइ त हमर मन ऊ घड़ी उपजल धान नियन बौरा जा हलइ।
      हम ठान लेलिऐ तखनिएँ से कि दुनियाँ हमरा कमकोढ़ी कहे चाहे निखट्टू, बकि हमरा फूल टाइम कवि बनना हे- सुरेद्र शर्मा नियन। कवि अशोक चक्रधर नियन नौकरिहा के लेबल नञ् लगे देना हे अपना पर। पार्ट टाइम भी कोय काम में काम हे? फूल टाइम में मजे कुछ आउर हे। फेर की? उठते-बैठते तुंकबंदी। कविते ओढ़ना, कविते बिछौना। जने चली “कवी जी - कवी जीपुकारेवला लोग नञ् थकथ। जने साँझ ओनही विहान। कज्जो बैठली त कविता के दौर पर दौर, हम कोय गंभीर साहित्य रचेवला कवि तो हली नञ्, जिनकर दु-तीने कविता में लोग झुराय लगऽ हथ, औंघे लगऽ हथ। जिनगी मजे-मजा में कटे लगल हमर।
      समय बीते के साथ-साथ फूल टाइम कवि के जीवन में जे दिक्कत आवऽ हे, ऊ हमरो ऊपर आवे लगल। पहिला, गाड़ी-ऊड़ी पर कोय पूछ दे कि “की करऽ हऽ? त सकुचाल-सकुचाल बोली कि कवी ही।”
      सामनेवला तुरतम पूछे, कवी तो हऽ बकि आउ की करऽ हऽ? ... गुजर-बसर थोड़े चल जइतो कविता लिखे आउ गावे से।”
      पहिले तो हम अड़ जा हली। बच्चनजी आउ पंतजी जइसन कय गो झमठगर-झमठगर कवी के नाम लेके कहऽ हली कि ऊ सब कविता के बल पर जिलखिन की नञ्। तुरते ऊ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आउ नज़रूल इस्लाम के उदाहरण देके कहथ- “जब ई सब के दिवस नञ् चल सकल कविता लिख के त तूँ कौन गली के झिटकी हऽ।”
      मन अकबका जाय। महात्मा बुद्ध नियन आत्मचिंतन करे लगी बकि अब की कर सकऽ हली। समाज के हमर अखंड प्रतिज्ञा टूट जाय के पता चलते हमर “इज्जत” के तो चित्थी-चित्थी उड़िआ जाना हल। ई गुने अब कदम वापिस लेना ठीक नञ् हल। होतम-हवातम निरनय लेली कि शादी नञ् करम। काहे कि शादी होतहीं हमर मौज के गाड़ी के डिरेल्ड हो जाना हल। बाकि हाय रे भाग्य! दसे दिन में बाबा अब-तब हो गेलन। गाँव-परिवार उनखा से अंतिम इच्छा पूछे लगल। फेर की सब अरमान कुचल देलन ऊ हमर| भावी जीवन के अपन अंतिम इच्छा के रूप में ऊ पोतपुतहु देखे चाहऽ हलन। बाह रे खाईंस।
      बाबू जी के नौकरी आउ घर के नाम पर शादी-बिआह हो गेल। दुख के बात ई हल कि औरत भी हमर “कवी” के बेटी हल। अपने तो समझिए गेली होत कि ऊ अपन माय से कवि से निपटे के सब अगम-निगम सिखिए के आयल होते।
      हमरा याद हे कि हमर बिहौती औरत पुछलक हल, सोहाग रात दिन- सब कहऽ हथिन कि अपने खाली कविते लिखऽ ही।”
      हम “हाँमें सिर हिलइली। ऊ थोड़े अधिकार जतइते बोलल त एकरा से दिवस चलतन थोड़े?...कविता से कहीं लहठी-चूड़ी भेंटाऽ हे।.......आज हम अयली हे, कइसूँ अंगेज कर लेम। सास-ससुर के मुँह जोह के भी जी लेम, बकि कल जब धीया-पूता होतो त खालि कविते रटयबऽ। आउ एतने से ऊ डॉक्टर-इंजीनीयर बन जायतो सब...........अखनौका इंग्लिश स्कूल के पढ़ाय में कतना पैसा लगऽ है ई अपने न का जानऽ ही।
      “जानऽ ही बकि तब के तब देखल जात। अपने थोड़े सबर रखी, अभी से पेटकुहान देवे के जरूरत नञ् हे। अभी साल-दू-साल वैवाहिक जीवन के इन्जवाय करऽ।”
      “खाक इन्ज्वाय करम। हमर त किसमते फोड़ देलन भगमान। जलम लेली त कविए के घर में मरम त कविए के घर में। सोचली हल कि जाय द! बाप घर दिक्कत हे त काहे। ससुराल में तो कवी से पिंड छूटत बाकि..........।” रूआँसा होके बोल रहल हल ऊ।
      हम बीच में टोकली, “ए माय, ई ठीक बात नञ् हो। पति परमेश्वर होवऽ हे, आउ परमेश्वर के घर के दुख के कोठरी समझ के जीना ठीक नञ् हे। आउ कवि तोर नजर में की हे?
      तमक के बोलल ऊ- सूअर के गूह, नीपे के न पोते के।”
      त हम तोर नजर में एतना बेकार अदमी ही।
ऊ बोलल- न! बिलकुल न तूँ हमरा नजर में बुरा नञ् हऽ, बकि जदि तूँ कविए बन के रहवऽ त हमर साथ दुए-चार दिन के समझऽ! जहिआ दाव लगतो, कुइयाँ-इनरा डूब के सुरधाम हो जइबो। बस गइते रहिहऽ कविता।”
      हमर जी डेराऽ गेल। हम पुचकारली, भाय! कहाँ-कहाँ के खिस्सा लेके बैठ गेलऽ। जानऽ नञ् हऽ कि आज हमनहीं के सोहागरात हे।”
      “सोहागरात! ... कउनो कीमत पर न! जब तक हमर माथा पर हाँथ धर के कसम नञ् खइबऽ कि कविता करना बंद कर देवो, तब तक हमरा ले सोहागरात कुहागरात के बराबर हे।”
      “का करती हल।” अर्धांगनी जीत गेल। हम हार गेली। सोहागे रात में एगो कवी मर गेल। आज भी जब कवी सम्मेलन वगइरह में कवि के कविता पर “बाह-बाह” सुनऽ ही त के याद आ जाहे।

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